कर्ण के कवच और कुंडल

     
कवच कुंडल
कर्ण कवच

 आप सभी ने कर्ण के कवच कुंडलों के बारे में तो सुना ही होगा। आज आप यहाँ एक ऐसी रोचक कथा पढ़ने जा रहे जिसके बारे में बहुत ही कम लोगो को पता है।
          बात त्रेतायुग की है जब एक दंपोद्धाव नामक आसुर ने एक हजार वर्षों की कठिन तपस्या के बाद सूर्य भगवान को प्रसन्न कर लिया। भगवान सूर्य प्रकट हुए और उन्होंने दंपोद्धाव से कहा" हे दंपोद्धाव तुमने मुझे अपनी कठिन तपस्या से प्रसन्न किया है, मैं तुमको वरदान देने के इच्छुक हूं। बोलो क्या वर चाहिए तुमको?"
दंपोद्धाव ने विनम्र होकर कहा" प्रभु आपके दर्शन मात्र से ही मेरी तपस्या सफल हो गयी परन्तु यदि आप मुझे कोई वर देना ही चाहते हैं तो मुझे अमर होने का वर दीजिये।"
सूर्य देव ने दंपोद्धाव को समझते हुए कहा" हे दंपोद्धाव इस मृत्युलोक में जो जन्म लेता है उनसब को एक न एक दिन मृत्यु के मुख में जाना ही पड़ता है, इसलिए इसके अलावा कोई और वर मांगो।"
परिस्थिति को समझते हुए दंपोद्धाव ने भगवान से कहा" हे देव अगर आप मुझे अमरता का वरदान नही दे सकते तो मुझे एक हजार कवचों के साथ दो कुंडल दीजिये। जिसमे से हर एक कवच को तोड़ने वाला कोई ऐसा हो जिसने एक हजार वर्ष तपस्या की हो और जो कोई भी मेरा कवच तोड़े वो तुरंत ही मर जाये।" भगवान सूर्य ने उसे वो वरदान दे दिया। अब दंपोद्धाव वरदान पाने के बाद पूरी धरती पर हाहाकार मचाने लगा। वो खुद को अमर समझने लगा।उसकी एक हजार कवचों के करण वो सहस्र कवच के नाम से जाना जाने लगा। सब देवता उसके अत्याचारो से दुखी होकर विष्णु के पास गए और इसका हल पूछा तब उन्होंने कहा की दक्ष प्रजापति की पुत्री मूर्ति और ब्रम्हा पुत्र धर्म के यहाँ मेरा जन्म होगा वही उसका अंत करेगा। देवी मूर्ति और देव धर्म का विवाह हुआ और दो जुड़ुवा बच्चे नर और नारायण का जन्म हुआ वो देखने मे हूबहू एक जैसे थे। उनमें दो शरीर और एक आत्मा निवास करती थी। जब वो बड़े हुए तो उन्होंने दंपोद्धाव का अंत करने की प्रतिज्ञा की। उन्होंने योजना बनाई और उनमें से एक तपस्या करने चले गए और दूसरा दंपोद्धाव से युद्ध लड़ने चले गए। अपने सामने कोमल बालक को देख वो जोर जोर से हँसने लगा और उनको जाने को कहा। किन्तु जब नारायण ने प्रहार किया तो युद्ध प्रारंभ हो गया। देखते देखते ये युद्ध एक हजार वर्ष चला और अंत मे उन्होंने उस असुर का एक कवच तोड़ दिया। वरदान के कारण नारायण की मृत्यु हो गयी। उसी समय नर अपनी तपस्या पूरी कर लौट रहा था और उसने अपने भाई को मरा पा कर उसको अपने साथ ले गया। नर ने महामृत्युजय मंत्र को सिद्ध किया था। जिससे उसने नारायण को जीवित किया और दंपोद्धाव से युद्ध करने चले गए। इस बार नारायण तपस्या करने चले गए। नर और दंपोद्धाव के बीच भी एक हजार वर्ष तक युद्ध हुआ। उन्होंंने भी उसका एक कवच तोड़ दिया। जिससे उनकी मृत्यु हो गई। अब नारायण ने आकर उनको पुनः जीवित किया और वो युद्ध करने चले गए। इस बार पुनः नर तपस्या करने चले गए। इस तरह से उन दोनों ने दंपोद्धाव के नौ सौ निन्यानबे कवचों को तोड़ दिया। ये देख दंपोद्धाव भाग खड़ा हुआ और सूर्य भगवान की शरण मे जा छुपा। उसके पीछे-पीछे नर  और नारायण भी आ रहे थे। वो भी सूर्यालोक जा पहुुँचे और दंपोद्धाव को उनको सौपने की बात कही। सूर्य देव ने अपने सरणार्थी की रक्षा करना उचित समझा। इसपर उनदोनो को सूर्य देव पर गुस्सा आ गया और उन दोनों ने उनको श्राप दे दिया और कहा" हम आपको श्राप देते हैं कि जिस दानव को आपने बचाया है वो आपके साथ तब तक नही छोड़ेगा जब तक आपके साथ  वो पुनः जन्म न ले ले और हमारे द्वारा उसकी मृत्यु न हो जाये।"
     त्रेतायुग समाप्त के बाद द्वापरयुग में सूर्य देव ने देवी कुंती को ये आशीर्वाद दिया कि आप जब चाहो तब आपको हम पुत्रवती होने का आशीर्वाद दे सकते है परंतु जब आप विवाह कर ले तभी हमारा आह्वाहन करना। देवी कुंती के मन मे ये प्रश्न उठा कि क्या ये सत्य भी है उसकी जांच करने के लिए उन्होंने विवाह के पूर्व ही सूर्यदेव का आह्वाहन किया और सूर्यदेव ने उनको पुत्रवती होने का वरदान दे दिया। अब वो शादी के पूर्व ही माँ बन गयी और उन्होंने एक दिव्यमान पुत्र को जन्म दिया जिसके शरीर पर दंपोद्धाव का आखिरी कवच और कुंडल था। जो उसके शरीर का हिस्सा था जिस कारण उसको किसी भी अस्त्र सस्त्र या पशु से कोई खतरा नही था। उन्होंने उसे नदी के किनारे छोड़ कर चली गई। उसको किसी सुत दंपति ने उठा लिया और उसका लालन पालन करने लगे। वही बालक बड़ा होकर सुतपुत्र दानवीर कर्ण बना। वो जानता था कि वो एक सुत पुत्र है उसका कार्य केवल सम्राट का रथ चलना ही है। परंतु उसको धनुर्विद्या प्राप्त करने में रुचि थी। उसको गुरु द्रोण ने अपना शिष्य के रूप में स्वीकार नही किया और उसको जाने को बोला जिससे उसके हृदय में अपमान के बीज अंकुरित हो गए। उसने भगवान परशुराम से धनुर्विद्या प्राप्त की और वो महाराज दुर्योधन का मित्र बन गया।
     उसने बचपन मे ही अपने कवच ओर कुंडल को सूर्य भगवान का वरदान मान कर उनको अपना आराध्य बना लिया। उसने प्रण लिया कि जो कोई भी सूर्य पूजा के बाद उससे जो कुछ मांगेगा वो उसको दे देंगे। दुर्योधन कौरवों के तरफ से थे इस कारण कर्ण भी कौरवो के तरफ ही था। महाभारत युद्ध के बीज फुट चुके थे। भगवान कृष्ण को कर्ण के कवच और कुंडल के बारे में पता था। भगवान कृष्ण पांडवो के तरफ से थे। उन्होंने कवच ओर कुंडल के बारे में देवराज इंद्र को बताई ओर कहा" देवराज आप कल सूर्यौदय के बाद एक ब्राह्मण बन कर्ण से उसके कवच और कुंडल मांग ले। अन्यथा जैसे ही अर्जुन उसका कवच तोड़ेगा उसकी मृत्यु हो जाएगी।" अर्जुन को देवी कुंती ने इंद्र के आशीर्वाद से प्राप्त किया था। ये सब भगवान सूर्य ने सुनी और रात्रि पहर ही वो कर्ण के सपने में उनको सारी बातें बता दी। उसपर कर्ण ने कहा" प्रभु आपकी पूजा के बाद जो कोई भी मेरे पास कुछ मांगने आता है उसको मैं वो देने को विवश हूँ। मैने ये प्रतिज्ञा की है।" इस पर सूर्य भगवान ने उसको कहा" ठीक है पुत्र तो जैसे ही वो प्रसन्न होकर तुमको वर मांगने को कहे तो तुम उसने उनका वज्र मांग लेना।" और वो अंतर ध्यान हो गए। सुबह हुआ। जब कर्ण पूजा के पश्चात अपने महल की ओर आ रहा था उसी समय एक ब्राह्मण ने कहा" हे दानवीर मुझे आपसे कुछ दान चाहिए।" कर्ण समझ गए कि वे देवराज इंद्र है उन्होंने उनको प्रणाम किया और कहा" बोलिये ब्राह्मण देव क्या चाहिए आपको धन, महल या राज्य?" ब्राह्मण देव ने कहा" नही नही मुझे केवल आपका कवच ओर कुंडल चाहिए। सुना है कि आप महादनवीर है। आप इस पहर किसी की भी इच्छा पूरी करते है तो मेरी यही इच्छा है।" इतना सुनते ही उसने उनको पुनः प्रणाम किया। इसपर ब्राह्मण देव ने उनसे कहा" आपने मुझे पुनः प्रणाम क्यों किया।" कर्ण ने उत्तर दिया" पहला प्रणाम मेरा ब्राह्मण देव के लिए और दूसरा देवराज इंद्र के लिए।" कर्ण की बात सुन वो अपने असली रूप में आ गए। कर्ण ने अपनी छोटी तलवार से कवच को अपने शरीर से अलग करने लगे। कर्ण का पूरा शरीर लहूलुहान हो गया। कर्ण ने कवच और कुंडल को उनके चरणों के पास रख दिया। इस पर इंद्र ने कर्ण से पूछा" हे दानवीर जब आपको पता था कि मैं आपसे आपका कवच ओर कुंडल मांगने वाला हूं तो आपने मुझे ये दान क्यों दिया?" कर्ण ने विनम्रता से कहा" हे देवराज मैं अपने हाथों से ये सुअवसर कैसे जाने देता। जो सारे संसार को दान देते है उनको दान देने का अवसर मुझे मिला है।" इंद्र ने प्रसन्न होकर कहा" मांगो पुत्र तुमको क्या वर चाहिए आज मैं तुमसे बहुत प्रसन्न हूँ।" कर्ण ने कहा" अगर दान के बदले वर मांग लुंगा तो मेरे दान म महत्व खत्म हो जाएगा।" इंद्र ने उनको पुनः कहा" हे दानवीर कर्ण दान तो तुमने ब्राह्मण को दिया था और वरदान तो तुमको देवराज इंद्र दे रहे है। इसमें संकोच ना करो मांगो।" कर्ण ने कहा" है देवराज आप कुछ देना ही चाहते है तो आप अपना सबसे शक्तिशाली अस्त्र बज्र दे दीजिए।" इंद्र ने कहा" मैं तुमको अपना बज्र देता हूं परन्तु इसका उपयोग तुम सिर्फ एक बार ही कर सकते हो।" कर्ण ने प्रणाम करते हुए कहा" मुझे इसका उपयोग एक बार ही करना है।" इंद्र ने वो कवच और कुंडल लिया और अपने स्वर्ग की और जाने लगे। जैसे ही वो स्वर्ग के द्वार पर पहुचे तो वो अंदर नही जा पा रहे थे। तभी आकाशवाणी हुई और कहा" इंद्र तुमने ये छल से प्राप्त किया है इसको तुम स्वर्ग नही लेके जा सकते हो।" उन्होंने कवच ओर कुंडलों को समुद्र के पास छोड़ स्वर्ग चले गए। कुछ वर्षों पश्चात चन्र्द देव ने उसको देखा और उसको लेकर भागने लगे। तभी समुद्र देव ने उनसे प्राथना किया कि इस दिव्या शक्ति की रक्षा हम दोनों को ही करनी होगी और उन दोनों ने कवच ओर कुंडलों को हिमालय में छिपा दिया। कर्ण में सूर्य देव की तरह तेज तो था परंतु श्राप के कारण उसमे दंपोद्धाव का अंश भी था। इस कारण उसको संसार सेे घृणा और आपमान ही मिला। कर्ण का वध अर्जुन ने किया जिसके सारथी स्वयंं भगवान कृष्ण थे। अर्जुन को नर और श्री कृष्ण को नारायण का अवतार माना जाता है।
      इस प्रकार नर और नारायण ने सूर्यदेव के एक हजार कवच और कुंडल को नष्ट किया और उस दानव का उद्धार भी किया।

टिप्पणियाँ