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नदी के द्वीप |
पद- १
हम नदी के द्वीप हैं।
हम नहीं कहते कि हमको छोड़कर स्रोतस्विनी बह जाए।
वह हमें आकार देती है।
हमारे कोण, गलियाँ, अंतरीप, उभार, सैकत-कूल
सब गोलाइयाँ उसकी गढ़ी हैं।
माँ है वह! है, इसी से हम बने हैं।
संदर्भ :- प्रस्तुत पंक्तियां प्रयोगवाद के प्रवर्तक सच्चिदानंद हीरानंद वात्स्यायन अज्ञेय द्वारा रचित कविता 'नदी के द्वीप' से ली गयी है।
व्याख्या :- द्वीप अपने बारे में बताता है कि हम नदी के द्वीप है। हमारा जन्म इसी नदी से हुआ है। हम ये कभी नही चाहते कि नदी हमें कभी छोड़ के चली जाए क्योंकि इसी से हमारा अस्तित्व है। इसी ने हमे आकार, रूप, पहचान सब कुछ प्रदान किया है। अगर नदी हमे छोड़ के चली जाए या सुख जाए तो हमारा अस्तित्व ही समाप्त हो जाएगा। जब तक नदी है तब तक हमारा अस्तित्व है, ये बात हम अच्छी तरह जानते है।नदी हमारी जननी है हमारी सृजन्हारणी है। इसी ने हमे रूप, आकार प्रदान किया है। जल में बहने वाले कंकड़, मिट्टी, बालू, पत्थर ने एकजुट होकर इस द्वीप को बनाया है। द्वीप के कोण, गालियां, उभार, किनारा, सारी गोलाइयां इस नदी की धारा ने बनाया है।
भाव यह है कि नदी समष्टि चेतना अर्थात समाज का प्रतीक है और द्वीप व्यक्ति चेतना अर्थात व्यक्ति का प्रतीक है। समाज में व्यक्ति का अपना अस्तित्व एवं व्यतित्व है परंतु उसे समाज से अलग करके नही देखा जा सकता। व्यक्ति का निर्माण समाज से ही होता है। उसी प्रकार जैसे द्वीप का निर्माण नदी में ही होता है। व्यक्ति को अपने व्यतित्व की रक्षा करते हुए समाज के प्रति अपना समर्पण करना चाहिए।
पद - २
किंतु हम हैं द्वीप। हम धारा नहीं हैं।
स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के।
किंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।
पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जाएँगे।
और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते?
रेत बनकर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे।
अनुपयोगी ही बनाएँगे।
स्थिर समर्पण है हमारा। हम सदा से द्वीप हैं स्रोतस्विनी के।
किंतु हम बहते नहीं हैं। क्योंकि बहना रेत होना है।
हम बहेंगे तो रहेंगे ही नहीं।
पैर उखड़ेंगे। प्लवन होगा। ढहेंगे। सहेंगे। बह जाएँगे।
और फिर हम चूर्ण होकर भी कभी क्या धार बन सकते?
रेत बनकर हम सलिल को तनिक गँदला ही करेंगे।
अनुपयोगी ही बनाएँगे।
व्याख्या :- हम इस नदी के द्वीप है तथा हमारा अस्तित्व धारा से अलग है। नदी के द्वीप नदी में से उत्पन्न होता है तथा नदी में रहते हुए भी अपनी अलग सत्ता बनाये रखता है। दूसरी ओर वह बहती हुई धारा है जिसने अपनी सत्ता को पूर्णतः समाप्त कर द्वीप का निर्माण किया जो नदी का एक अंग बन गया है। धारा का अस्तित्वा नदी से है। नदी से अलग धारा की कोई कल्पना ही नही की जा सकती है क्योंकि धारा ने स्वयं को नदी के प्रति पूर्ण समर्पित कर दिया है। किंतु द्वीप ने अपनी व्यक्ति चेतना को बनाये रख नदी के प्रति समर्पण किया है।
भाव यह है कि व्यक्ति समाज की इकाई है। समाज मे रहते हुए भी उसकी निजता सुरक्षित रहती है। आज का व्यक्ति अपनी सत्ता को खोना नही चाहता, यह ठीक है। यह ठीक है कि वह द्वीप नदी का अंग है नदी के प्रति समर्पित है किंतु प्रवाह में पड़कर अपने अस्तित्व को यह खोना नही चाहता। यदि वह प्रवाह में पड़ बहने लगेगा तो रेत बन जायेगा और अपना अस्तित्व खो देगा। उसके पैर उखाड़ जाएंगे, स्थिरता नष्ट हो जाएगी और उस भयंकर बाढ़ में पड़कर वह कही का न रहेगा। लेकिन इतना निश्चत है कि वो इतना कर के भी कभी भी धारा का अंग नही बन पाएगा। वह रेत बन जायेगा तथा रेत बन के निर्मल जल को गंदला कर देगा, उसे अनुपयोगी बना देगा। इसलिए वह अपनी व्यक्ति चेतना को बनाये रखना चाहता हूं। भाव यह है कि उसके व्यक्तित्व की सार्थकता द्वीप बने रहने में है, नदी में पूर्णतः विलीन होने में नही है।
पद :-३
द्वीप हैं हम! यह नहीं है शाप।
यह अपनी नियती है।
हम नदी के पुत्र हैं।
बैठे नदी की क्रोड में।
वह बृहत भूखंड से हम को मिलाती है।
और वह भूखंड अपना पितर है।
व्याख्या :- द्वीप कहता है कि यदि हम नदी के द्वीप है तो यह अभिशाप नही है अपितु हमारी नियति है। नदी से अलग हमारा कोई अस्तित्व नही है। यह नदी हमारी जननी है और हम इसके पुत्र है। इसने हमे अपनी कोख में जन्म दिया है तथा हम इसकी गोद में उसी तरह बैठे है जैसे जननी की गोद में शिशु। जिस तरह माता अपने बच्चों को जन्म देकर पिता से मिलती है उसी तरह इस माता नदी ने रूप-आकर देकर उस भूखण्ड से हमे मिलाया जो पिता है। द्वीप भी भूखण्ड है और यह छोटा सा भूखण्ड उस विशाल भूखण्ड का ही प्रतिरूप है जिसे हम अपना पिता कह सकते हैं।
पद :-४
नदी तुम बहती चलो।
भूखंड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है,
माँजती, सस्कार देती चलो। यदि ऐसा कभी हो -
तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के,
किसी स्वैराचार से, अतिचार से,
तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे -
यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल,
प्रावाहिनी बन जाए -
तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर।
फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।
मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।
व्याख्या :- हे नदी, तुम माँ हो। इस द्वीप को तुमने ही जन्म दिया है। तुम निरंतर बहती रहो। तुम्हारी गति कभी अवरुद्ध न हो। यह द्वीप नदी में रहते हुए भी नदी से अलग है क्योंकि वह भूमि का एक खण्ड है, पानी की धारा नही है। यदि नदी उसकी माता है तो भूखण्ड उसका पिता है। पृथ्वी से जो अंश उसे भूखण्ड के रूप में मिला है उसकी रक्षा करना उसका कर्तव्य है इसलिए वह अपनी व्यक्ति चेतना को सुरक्षित बनाये रखती है।
नदी उसकी माता है जो उसे रूपाकार देती है। उसका संस्कार करती है। द्वीप कहता है कि यदि नदी में किसी कारण से बाढ़ आ जाये जो किसी स्वेच्छाचार अतिवाद का ही परिणाम हो सकती है तथा यह निर्णय जलधारा वाली नदी है।
पद :-३
द्वीप हैं हम! यह नहीं है शाप।
यह अपनी नियती है।
हम नदी के पुत्र हैं।
बैठे नदी की क्रोड में।
वह बृहत भूखंड से हम को मिलाती है।
और वह भूखंड अपना पितर है।
व्याख्या :- द्वीप कहता है कि यदि हम नदी के द्वीप है तो यह अभिशाप नही है अपितु हमारी नियति है। नदी से अलग हमारा कोई अस्तित्व नही है। यह नदी हमारी जननी है और हम इसके पुत्र है। इसने हमे अपनी कोख में जन्म दिया है तथा हम इसकी गोद में उसी तरह बैठे है जैसे जननी की गोद में शिशु। जिस तरह माता अपने बच्चों को जन्म देकर पिता से मिलती है उसी तरह इस माता नदी ने रूप-आकर देकर उस भूखण्ड से हमे मिलाया जो पिता है। द्वीप भी भूखण्ड है और यह छोटा सा भूखण्ड उस विशाल भूखण्ड का ही प्रतिरूप है जिसे हम अपना पिता कह सकते हैं।
पद :-४
नदी तुम बहती चलो।
भूखंड से जो दाय हमको मिला है, मिलता रहा है,
माँजती, सस्कार देती चलो। यदि ऐसा कभी हो -
तुम्हारे आह्लाद से या दूसरों के,
किसी स्वैराचार से, अतिचार से,
तुम बढ़ो, प्लावन तुम्हारा घरघराता उठे -
यह स्रोतस्विनी ही कर्मनाशा कीर्तिनाशा घोर काल,
प्रावाहिनी बन जाए -
तो हमें स्वीकार है वह भी। उसी में रेत होकर।
फिर छनेंगे हम। जमेंगे हम। कहीं फिर पैर टेकेंगे।
कहीं फिर भी खड़ा होगा नए व्यक्तित्व का आकार।
मात:, उसे फिर संस्कार तुम देना।
व्याख्या :- हे नदी, तुम माँ हो। इस द्वीप को तुमने ही जन्म दिया है। तुम निरंतर बहती रहो। तुम्हारी गति कभी अवरुद्ध न हो। यह द्वीप नदी में रहते हुए भी नदी से अलग है क्योंकि वह भूमि का एक खण्ड है, पानी की धारा नही है। यदि नदी उसकी माता है तो भूखण्ड उसका पिता है। पृथ्वी से जो अंश उसे भूखण्ड के रूप में मिला है उसकी रक्षा करना उसका कर्तव्य है इसलिए वह अपनी व्यक्ति चेतना को सुरक्षित बनाये रखती है।
नदी उसकी माता है जो उसे रूपाकार देती है। उसका संस्कार करती है। द्वीप कहता है कि यदि नदी में किसी कारण से बाढ़ आ जाये जो किसी स्वेच्छाचार अतिवाद का ही परिणाम हो सकती है तथा यह निर्णय जलधारा वाली नदी है।
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