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कबीरदास विनय के पद |
एसी मूढता या मन की।
परिहरि रामभगति-सुरसरिता, आस करत ओसकन की।
धूम समूह निरखि-चातक ज्यौं, तृषित जानि मति धन की।
नहिं तहं सीतलता न बारि, पुनि हानि होति लोचन की।
ज्यौं गज काँच बिलोकि सेन जड़ छांह आपने तन की।
टूटत अति आतुर अहार बस, छति बिसारि आनन की।
कहं लौ कहौ कुचाल कृपानिधि, जानत हों गति मन की।
तुलसिदास प्रभु हरहु दुसह दुख, करहु लाज निज पन की।
शब्दार्थ:- मूढता= मूर्ख, ओसकन= ओस, धूम= धुँआ, निरखि= देखना, तृषित= प्यास, मति= मन, लोचन= आंख, बिलोकि= देखना, आनन= चोंच,
भावार्थ: = हे प्रभु मैंने रामभक्ति रूपी गंगा जल को त्याग दिया और ओस के कणों से अपनी प्यास बुझाने चला। जिस प्रकार ओस के बूंदों से कभी प्यास नही बुझती ठीक उसी प्रकार हमें संसारिक सुखों से सच्चे सुख की प्राप्ति नही हो सकती।हे प्रभु जिस प्रकार चातक पक्षी धुंए के समूह को देखता है और अपनी प्यास बुझाने के लिए उसकी ओर बढ़ता है लेकिन उसकी प्यास तो बुझती नही बल्कि उसका मन रूपी धन आहत होता है। उसे न ही वहाँ जल की एक व बूंद मिलती है और न ही उसको शितलता अपितु उसके आँखों को कष्ट सहना पड़ता है, क्योंकि वह धुंए का समूह था और उसने उसे बादल समझ लिया। जैसे सेन पक्षी अपने ही शरीर की परछाई को कांच जैसे चिकने फर्श पर देख उसे अपना आहार समझ लेता है और उसपर एक शिकारी की तरह टूट पड़ता है।वह पक्षी जैसे ही अपनी ही परछाई को देख एक शिकारी की तरह उसपर फर्श पर चोंच मरता है उसको चोंच की हानि होती है। इस प्रकार न ही उसकी भूख मिटती है अपितु उसको अपना चोंच व क्षतिग्रस्त करवाना पड़ता है। इस प्रकार तुलसीदास जी कहते है कि हम जिसे सच्चा सुख समझते हैं और उनकी ओर जाते है वास्तव में हमे उससे सच्चे सुख की प्राप्ति नही हो सकती अपितु वह हमें कष्ट ही देगा। कवि कहते है कि मेरे प्रभु तो जन जन के मन की बात जानते है सब के मन के चाल कुचाल को जानते है। हे प्रभु आप मेरे सभी प्रकार के दुखों को हर लीजिये और मेरी लाज बचाये।
(पद संख्या :- 2)
कबहुंक हौं यहि रहनि रहौगो।
श्री रघुनाथ-कृपाल-कृपा तैं, संत सुभाव गहौगो।
जथा लाभ संतोष सदा, काहू सों कछु न चहौगो। परहित निरत निरंतर, मन क्रम बचन नेम निबहौगो। परुष बचन अति दुसह स्रवन, सुनि तेहि पावक न दहौगो।
बिगत मान सम सीतल मन, पर-गुन, नहिं दोष कहौगो।
परिहरि देहजनित चिंता दु:ख सुख समबुद्धि सहौगो। तुलसीदास प्रभु यहि पथ रहि अबिचल हरिभक्ति लहौगो।
शब्दार्थ :- सुभाव= स्वभाव, गहौगो= ग्रहण, जथा= उचित, परहित= दुसरो का हित, स्रवन= सुनना, पावक= क्रोध,
प्रसंग :- प्रस्तुत पद में तुलसीदास ने एक आदर्श भक्त अथवा एक आदर्श भक्ति के लिए संत के स्वभाव और उनके गुणों आदि के महत्व को प्रतिपादित किया है।
व्यख्या :- आदर्श राम-भक्त बनने की अपनी कामना और उसके लिए आवश्यक चारित्रिक गुणों को प्रकट करते हुए कवि ने कहा है -" क्या कभी मैं इस प्रकार बन सकूंगा और कृपा करने वाले श्रीराम की कृपा से क्या मैं संत वाला स्वभाव को ग्रहण कर पाऊंगा? संतो वाले उस स्वभाव को ग्रहण करके मैं सदा उचित लाभ प्राप्त करके ही संतोष करूँगा और किसी से कुछ और नही पाना चाहूंगा। सदैव परोपकार में लीन रहूंगा और मन, कर्म और वचन से सभी प्रकार के नियमों का पालन करूंगा। दुसरो के द्वारा कहे गए कठोर वचनों को सुनकर किसी प्रकार का क्रोध या संताप नही करूंगा तथा अभिमान रहित होकर संत-स्वभाव से दूसरों के गुणों को ही देखूंगा, उनकी बुराईयों को नही। देहजन्य चिंता को छोड़ते हुए सदैव सुख और दुःख दोनो को समान भाव से ग्रहण करूंगा। हे प्रभु मैं विश्वास दिलाता हूं कि इसी पथ पर दृढ़तापूर्वक चलकर मैं अपनी भक्ति को प्राप्त करूँगा।
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